शनिवार, 28 नवंबर 2009

श्रृंगारिक मुक्तक ...!!


नही संदेह कुछ इसमें गगन कितना सुहाता है
पकड़
से जो अधिक बाहर वही नजरों में आता है

हमारी क्या ,तुम्हारी क्या ,सभी की है यही स्थिति
पराई बीबियों को देखकर मन गुनगुनाता है


घिरे जुल्फों के जब बादल गगन में सूर्य शरमाया
अँधेरा गया जमकर हिर्दय भी खूब हरसाया

तभी माथे की बिंदिया ने चमक करके सितम ढाया
यहीं पर रुक गयी ''गाड़ी '' मै मलते हाथ घर आया